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मैं हिंदी भारत में ही जन्मी और यही पली बढ़ी। यहाँ के सभी लोग मुझसे भली प्रकार परिचित है। वर्षों पहले भारत के लोगों ने जिस प्रकार मेरी जड़ों को सीचकर मुझे बढावा दिया।उससे मैं भारत के कोने कोने तक पहुँच गयी ( भारत के कुछ क्षेत्रों को छोड़कर )। इससे मुझे कभी महसूस ही नही हुआ कि मैं शब्दों से बनी एक भाषा हूँ । वो भाषा जो सिर्फ बोली जाती है । परन्तु मैंने अपने अन्दर एक जीवन को महसूस किया।जिस तरह भारतेन्दु हरिशचंद जैसे लोगों ने मेरा मान सम्मान बढ़ने के लिए कदम उठाए, उससे यही लगा कि शायद मैं उस उड़ान तक जाने वाली हूँ । वहाँ तक जहाँ तक भारत की कोई भाषा पहुँच ना सकी । मुझे नही मालूम था कि मेरे सपनों के पंख भी क़तर दिए जायेंगे।
अंग्रेजों का भारत क्या आना हुआ मेरे तो अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह गया । जाते जाते अंग्रेज भारत से तो चले चले गए। परन्तु मेरी स्थिति को दयनीय कर गये। यहाँ के लोगों ने उस विदेशी भाषा को अपना लिया ।
मुझे शिकायत नही की, यह सोचकर कि उस विदेशी भाषा को अपनी बहन बनाकर रखूंगी। पर उसको तो लोगों ने मेरी सौत ही बना डाला। मेरे ही लोग मुझे ही भूलने लगे । लोग मुझे बोलने से कतरने लगे। अंग्रेजी मेरे ऊपर हावी हो गयी थी। और भारत के महान लोगों ने ही मेरी अहमियत को कम कर दिया था। अंग्रेजी बोलने वालों को अभिजात वर्ग में शामिल कर दिया गया और मुझे छोड़ दिया गया उनके सहारे जिन्होंने मुझे जीवित तो रखा । पर मुझे लम्बे समय तक जीवित रखने के लिए मुझे बढ़ावा नही दे सके। मैं पिछड़ती गई और ‘देशी मुर्गी दाल बराबर हो गयी’ । मैं सिसकियाँ ले रही थी, हाथ पाव मर रही थी। अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिये। पर किसी ने मेरी नही सुनी। धीरे धीरे मैं किताबों से भी दूर हो रही थी ज्यादातर लोग अपनी किताबें अंग्रेजी में लिखने लगे थे ।
शुक्र है कि कुछ लोगों का प्रयास जारी था मेरे अस्तित्व को बचाए रखने में। उन्ही के चलते १४ सितंबर १९४९ को संविधान ने मुझे संघ की राजभाषा का दर्जा मिला। तबसे लोग १४ सितंबर को मेरे दिवस माना रहे हैं । इस दिन लोग मेरे अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कार्यशालाएँ करवाते हैं। हिंदी साहित्यकारों को सम्मानित किया जाता है । पर आपको क्या लगता है मेरे लिए इतना कर देना काफी है ….? क्या इन सब से मेरा अस्तित्व बच पायेगा….? यह तो मैं खुद नही जानती कि मेरा अस्तित्व बच पायेगा की नही …? जिस तरह स्कूल और रोजगार के लिए अंग्रेजी अनिवार्य हो रही है । कोई भाषा तबतक जीवित रहती है जबतक उसका महत्व बना रहे। और किसी भाषा के बोलने से जान लेने से उसका महत्व नही बढ़ता। उसके लिए उसका रोजगार में विशेष महत्व देना आवश्यक है। अगर हिंदी पढ़ लिखकर भी हमे रोजगार ना मिले, तो हम हिंदी को महत्व क्यूँ देंगे…? शायद यही वजह है जो लोगों मुझसे दूर जाते है। पढे लिखे होने के बावजूद खुद को ग्वार समझते है। अब आप ही बताइये लोग कैसे मेरे अस्तित्व को बचा सकेंगे। अगर मैं उनके लिए रोजगार ही ना दे सकूँ। आपको याद होगा भारतेन्दु हरिशचंद द्वारा लिखे वो शब्द जो कुछ इस तरह है –
“निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल।”
बेशक आज हम उन्नति की और बढ़ते चले जा रहे है । पर क्या अपनी निज भाषा के साथ…? मैं ‘हिंदी’ कितनी अनिवार्य हूँ आपकी उन्नति में…? क्या आपको नही लगता मेरी जगह एक विदेशी भाषा ने ले रखी है …?
मेरे अस्तित्व को बचाने के लिए केन्द्र सरकार ने ही नही अपितु राज्य सरकार ने भी कितने कार्यक्रम चलाये है। कार्यशालाएं चलवाई। मुझे बढ़ावा देने के लिए लोग आते है। बड़ें बड़ें विचार रखे जाते हैं। कोरे कागज पर शब्द उकेरे जाते हैं। मेरे ही लोग मुझे मेरे ही घर पर मेरा अस्तित्व को बचाने के लिये लड़ते नजर आते हैं । और बाहर निकलते ही अंग्रेजी में चिट चैट करते नजर आते हैं।
मैं आज भारत के १० से अधिक राज्यों में बोली जानी और समझी जाती हूँ। भारत के गाँवों में मैं अब भी चैन की साँस ले रही हूँ। भारत की ७० फीसदी से अधिक जनसंख्या गाँवों में ही बसती है। इनके बावजूद भारत में सर्वाधिक बिकने वाले किताबें और अखबार अंग्रेजी के ही है। क्या मुझे जानने वाले लोग भारत में नही है, जो मुझे समझ नही सके.….? या मुझे पढ़ने में शर्म महसूस करते हैं …? क्या मुझे पढ़ने और लिखने वाले लोगों को पढ़ा लिखा नही समझा जाता…?
खैर मैं ‘हिंदी ‘ आज खुद एक सवाल बनकर खड़ी हूँ अपने ही सामने। आपसे मैं सवाल क्यूँ कर रही हूँ। भगवान से मेरी दुआ है कि कोठारी शिक्षा आयोग बनाने वाले सक्रिय रहें जिन्होंने मेरी अहमियत को समझा। मुझे बचाये रखने के लिए और मेरे सम्मान के लिए प्रयत्न किये। और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी जैसे लोग भारत में हमेशा पैदा होते रहे जिन्होंने मुझे दूसरे देशों में भी सम्मान दिया।
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