एक बच्चे की डायरी से…..
छठी क्लास में पड़ने वाली टीचर को एक बच्चे की छूटी हुई डायरी मिल।स्कूल में छुट्टी हो चुकी थी। कुछ बच्चे ही बचे थे। टीचर ने उन बच्चों से पूछने की कोशिश की। पर कोई ना बता सका कि वो किसकी डायरी है। डायरी पर किसी का नाम नही लिखा था पर जिस तरह से डायरी पेड़ पौधों और पंछिओं से सजी थी उसको देखकर लगता था कि जो भी हो उसे उन पेड़ पौधों और इन पंछिओं से बहुत प्यार है। जब पता नही चल पाया कि यह डायरी किसकी है। टीचर ने डायरी अपने बैग में रखी और अपने घर को चली गयी। रात को जब टीचर ने सारे काम खत्म कर लिये। फुरसत से उस डायरी को देखा। एक बच्चे की डायरी थी। पर किसी भी तरह से ये नही लग रहा था कि वो किसी बच्चे की डायरी है। और वो भी छठी के बच्चे की।एक एक शब्द और एक एक चित्र में इतनी सजीवता। डायरी के बीच में एक पेज था जिस पर उसने कुछ ऐसा लिख था-
“मेरे घर के पीछे एक नीम का पेड़ है। उस पर बहुत से पँछियों ने घोसलें बना रखे है। दिन भर शांति रहती है। और जब साँझ ढलने लगती है। वो धीरे धीरे अपने बसेरे को लौटने है। और जब वो एक साथ इक्कठा होते है, तो चु चूं करते रहे है। मानों एक दूसरे का हाल जानना के लिए गुफ्तगू कर रही हो।उनका एक साथ चहचहाना किसी गीत से कम नही है । फिर रात ढलते ढलते वो बिलकुल खामोश हो जाते है।ये बेजुबान पंछी है, पर कितने करीब है मेरे। इसका एहसास कोई नही कर सकता।माँ मुझे अक्सर कहती है,क्या तुम रोज रोज यहाँ शाम को खिड़की के पास आकर बैठ जाती हो ? क्या करती रहती हो यहाँ पर? माँ कुछ नही समझती है। मै धीरे से मुस्कुराती हूँ। और फिर उस नीम के पेड़ की तरफ देखने लगती हूँ। माँ बिना कुछ बोले वहां से चली जाती है। जानती है ना मुझ पर कुछ असर नही होने वाला उनकी बातों का।ये सब मेरे दोस्त बन गए है। बेजुबान है पर रोज मुझसे बातें करते है। ये रोज मुझे आकर बताते है कि आज उनका दिन कैसे गया। कैसे कैसे लोगों से मिले आज वो। माँ क्या समझेगी इनकी बातों को।ऐसा करते हुए मुझे अब सालभर से ज्यादा हो चला है।अब तो मैं छठी में भी पँहुच गयी हूँ। और अब तो मैं इन पंछीओं को पहचानने भी लगी हूँ। मैंने तो कईओ के नाम भी रख दिए है। मैं बहुत खुश रहती हूँ इन पंछिओं की चहचाहट सुनकर। शायद कोई नही समझ सकता है मेरी और उन बेजुबानों की मौन भाषा को। माँ तुम भी नही।
एक दिन फिर अचानक साँझ तो ढली पर उन चिड़ियों का संगीत नहीं था। बल्कि एक तेज शोर था उन चिड़ियों का। मानों किसी ने उनके घोसलों को गिरा दिया हो। मैं भागी भागी खिड़की की तरफ दौड़ी। ये क्या ? पेड़ कहाँ गया ? माँ ! माँ ! जल्दी आओ। माँ भागती हुई आई।क्या हुआ ? क्या हुआ ?
“माँ यहाँ का पेड़ कहाँ गया ?” मैं रुआसी से माँ से पूछने लगी।
“ओह! मैं सोच रही थी कि क्या आफत आ गयी है।”माँ ने लम्बी राहत लेते हुए कहा।
“वो कल यहाँ लोग आये थे उन्होंने ही पेड़ काट दिया है।शायद कोई रहने आ रहा है यहाँ इसलिए सफाई करा रहा है।” माँ कहते हुए चली गई।
मै लगभग रोने ही लगी थी।” सफाई का क्या मतलब कि ये पेड़ ही काट दो।इन परिन्दों का घर ही उजाड़ दो।” इतना कहकर मै वहां से चली आई। और देर रात तक वो परिन्दें शोर करते रहे। मानों वो भी इंसानों की तरह अपनी तबाही पर चीख चीखकर रो रहे हो। कुछ दिन के बाद वहां कुछ लोग रहने आ गए। मुझे अब कुछ भी अच्छा नही लगता है। मुझे बहुत याद आती है उन पँछियों की।”
टीचर डायरी पढकर भावुक हो गई । और डायरी को फिर बैग में इसलिए डाल ली कि कल ये जिसकी भी डायरी है उसे लौटा दूंगी।इसलिए नही कि ये एक मासूम बच्चे की डायरी है। बल्कि इसलिए की जीने के लिए यादों का सहारा ही बहुत होता है। उस बच्चे को मैं वो पंछी तो नही ला सकती। पर उनकी यादों को उस मासूम से अलग नहीं कर सकती।
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